Friday, October 23, 2009

एक नया प्रयास १६

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स घोषो धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत्।
नभश्च पृथिवीं चैव  तुमुलो व्यनुनादयन् ॥
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धरा औ’ नभ,
हो भयभीत गूंजे।
शंख-घोष! से॥
हिय-विदीर्ण,
धृतराष्ट्रसमस्त।
तीव्र-ध्वनि से॥


अब तक के श्लोकों पर दृष्टिकोण कल प्रकाशित होगा।

Thursday, October 22, 2009

एक नया प्रयास १५

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काश्यश्च परमेष्वासः शिखण्डी च महारथः।
धृष्टद्युम्नो विराटश्च सात्यकिश्चापराजितः॥
द्रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वशः पृथिवीपते।
सौभद्र्श्च महाबाहुः शङ्खान्दध्मु: पृथक् पृथक् ॥
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काशीराज औ’
महारथी शिखण्डी,
धनुर्धर से!
धृष्टदुम्न औ’
अजेय सात्यकि से!
विराट जैसे!!
सौभद्र वीर
द्रुपद औ’द्रौपद।
की शंख-घोष॥

Wednesday, October 21, 2009

एक नया प्रयास १४

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अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः।
नकुलः सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ॥
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शंख बजाया,
जो अनन्तविजय!
युधिष्ठिर ने॥
घोषित किया,
’सुघोष’ महाशंख।
तो नकुल ने॥
की सहदेव,
उदघोषणा भारी।
मणिपुष्पकैः॥

Tuesday, October 20, 2009

एक नया प्रयास १३

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पाञ्चजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनंजयः।
पौण्ड्रं दध्मौ महाशङ्खं भीमकर्मा वृकोदरः ॥
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कृष्ण-पाञ्जन्य,
अर्जुन-देवदत्त।
पौण्ड्र-भीम ने!
ध्वनित किए।
ये महाशंख सभी।
ह्वै महाघोष॥

Monday, October 19, 2009

एक नया प्रयास १२

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ततः श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ।
माधवः पाण्डवश्चैव दिव्यो शङ्खौ प्रदध्मतुः॥
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(प्रत्योत्तर में)


की शंख-ध्वनि,
सु-अश्व-रथारुढ़।
श्रीकृष्ण-पांडु॥

Sunday, October 18, 2009

एक नया प्रयास ११

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ततः शङ्खाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखाः।
सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोsभवत॥
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(भीष्म के शंख के साथ ही...)


शंख-खंजीर!
मृदंग,ढोल, भेरी।
तुमुल-ध्वनि!!!

Saturday, October 17, 2009

एक नया प्रयास १०

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तस्य सञ्ञनयन्हर्षं कुरुवृद्धः पितामहः।
सिंहनादं विनद्योच्चैः शङ्खंदध्मौ प्रतापवान।
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उच्चै गरजा
प्रपौत्र-हर्ष हेतु।
भीष्म का शंख॥



दुर्योधन की दुर्बलता को समझते हुए भीष्म ने सिंह के समान शंख ध्वनि कर उसे प्रसन्न करने का प्रयास किया।ताकि हैंसला बना रहे। (दुर्योधन सामने पांडवों की सेना देखकर मन ही मन घबरा रहा था यह भीष्म पहचान गए थे।)

Friday, October 16, 2009

एक नया प्रयास ९

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अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिताः।
भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि॥
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नियत स्थाने,
च यथावत स्थित।
भीष्म रक्षार्थ॥

Thursday, October 15, 2009

एक नया प्रयास ८

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अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम्।
पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम्॥
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कौरव बल!
पितामह-रक्षित
अजेय सेना॥

सम्मुख बल,
भीमसेन रक्षित।
जय-सुगम॥

Wednesday, October 14, 2009

एक नया प्रयास ७

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अन्ये च बहवः शूरा मदर्थे त्यक्तजीविताः।
नानाशस्त्रप्रहरणाः सर्वे युद्धविशारदाः॥
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(दुर्योधन उवाच)

अनेक शूरा
बहुशस्त्र- सज्जित
जीवनत्यागी॥


प्राण-बलि को
मुझहेतु आतुर।
युद्ध-निपुण।

Tuesday, October 13, 2009

एक नया प्रयास ६

(दुर्योधन द्रोणाचार्य से बोला )


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भवान्भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिञ्ञयः।
अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव च॥
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हो गुरु द्रोण!
हैं पितामह भीष्म,
औ’ अश्वत्थामा ॥


कर्ण, विकर्ण,
सोमज, कृपाचार्य,
सर्व विजयी!

Monday, October 12, 2009

एक नया प्रयास ५

(दुर्योधन द्रोणाचार्य से बोला )

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अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम।
नायका मम सैन्यस्य सञ्ज्ञार्थं तान्ब्रवीमि ते॥
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हे गुरुश्रेष्ठ!
ये शूरवीर योद्धा।
कौरव-सेना।

Sunday, October 11, 2009

मेरा दृष्टिकोण

अबतक आए श्लोकों केबारे में मेरा दृष्टिकोण
संजय धृतराष्ट्र को युद्ध-भूमि का हाल बता रहे हैं। दुर्योधन पांडवों की व्यूहरचित सेना देखकर द्रोणाचार्य से उसके बारे में विस्तार से बता रहा है। उसने सबसे पहले व्यूह की बात करी उसके बाद मुख्य पंक्तियों में खड़े महावीरों का वर्णन किया।
-किसी भी युद्ध के लिए सामने वाले की शक्ति और योजना का पता चल जाए तो उसपर जीत हासिल करना आसान होता है। दुर्योधन द्रोण से यही समझन चाह रहा था।
- जब कभी किसी के अंदर कोई बुराई होती है तो उसके मन में चोरा आ जाता है और वह सामना करने से पहले कनखियों से उसे देखकर अनुमान लगाता है। वही दुर्योधन कर रहा था।
- शक्तिशाली सेना का स्वामी होने पर भी उसे पांडवों की सेना से भय हो रहा था क्योंकि कायर पीछे से वार करता रहा था अब आमने-साम्ने का युद्ध था जो उसे सोचने को मजबूर कर रह था पर अब बहुत देर हो चुकी थी। युद्ध तो निश्चित होगया था।
-

Friday, October 09, 2009

एक नया प्रयास ४

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अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि।
युयुधनो विराटश्च द्रुपदश्च महारथः॥

धृष्टकेतुश्चेकितानः काशिराजश्च वीर्यवान।
पुरुजित्कुन्तिभोजश्च शैब्यश्च नरपुङ्गवः॥
युधामन्युश्च  विक्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान्।
सौभाद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथाः॥
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शूर सात्यकि!
विराट! दृष्टकेतु!
भीमार्जुन से!
द्रुपद! शैव्य!
गंगज! काशीराज!
पुरुजित भी!
वो उत्तमौजा
सौभद्र, सुधामन्यु।
द्रौपदेय !कुंती जनक!
महारथी वीर!

Thursday, October 08, 2009

एक नया प्रयास ३

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पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम्।
व्यूढ़ां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता॥३
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(दुर्योधन द्रोण से बोला)



देखो आचार्य!
सेना-व्यूह-रचना ।
धृष्ट्दुम्न की॥

एक नया प्रयास २

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दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा।
आचार्यमुपसङ्गम्य राजा वचनमब्रवीत् ॥

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(संजय बोले)



पाण्डव-सेना,
दृष्ट्वा दुर्योधना।
गया द्रोण पे॥

Wednesday, October 07, 2009

छोटा सा प्रयास १




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धृतराष्ट्र उवाच -


धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्ञय॥
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और आज से एक नया प्रयोग,
मुझसे श्रीमद्भगवतगीता क्या कहती है-
(धृतराष्ट्र ने पूछा)


क्या कर्म किया?
कुरु-वंश पुत्रों ने,
कुरुभूमि में!
(कुरु= कौरव-पांडवों के पूर्वज ’कुरु’ कहलाते थे।)
(क्रमशः)

Friday, October 02, 2009

हम कहाँ हैं?

- प्रधानजी/प्रधानाजी गुस्से में गाली दें तो ठीक है क्यों कि उनको प्रधानत्त्व के साथ-साथ विशेषाधिकार भी प्राप्त हो जाता है कुछ भी कहने का। मामला ओहदे का है, कोई डेड लाइन नहीं सब कुछ सही ही होगा हर हाल में।
- विशेषाधिकार-प्राप्त के लिए कोई नैतिकता नहीं है, कौन निर्धारित करेगा नैतिकता? किसकी नैतिकता? किसी के लिए अनैतिक ही तो किसी का नैतिक होता है। कम समझदार लोग जानते ही नहीं। जबरिया टोककर टाँग अड़ाते हैं। वाह! री दुनिया और दुनिया के ठेकेदार।
- जवान निकलने लगी है। उपेक्षा करो। क्या उल्टा-पुल्टा आनाप-शनाप भैं-भैं करते हैं लोग? नहीं समझ है, तो उधार माँग लें प्रधानजी/प्रधानाजी से। थोड़ी चापलूसी करनी पड़ेगी माई-बाप से।
- मूर्ख! यह प्रजातंत्र है। नेता की ही तो चलेगी। फिर वोई बात। तुझ में अक़्ल होती तो तू न इस तरह बात घुमा लेता? बेवकूफ़ बड़ों की बात में टाँग अड़ाता है?
- तो चुपचाप सुनता/सुनती-देखता/देखती रहूँ? फिर कैसा प्रजातंत्र?
- बोल ले, बोलता रह क्या कर लेगा। प्रधानजी के सब साथ हैं, उनका दबदबा है! तेरा क्या है? बोल के अपने आप चुप हो जाएगा। कुछ असर नहीं होगा और तेरे पर ही गुस्सा निकलेगा।
- ये तो कोई बात न हुई? ग़लत को ग़लत तो कहना ही पड़ेगा कि नहीं?
- अरे पागल ग़लत-सही तो आम आदमी, ग़रीब आदमी के शब्द हैं। दादा लोगन के थोड़े ही। वो तो जो बोले सब सही कहो। क्यों आफ़त मोल ले रहे हो। कोई काम निकालना सीखो। खाली-पीली सही-ग़लत न करो।
- क्यों?- ज़्यादा करेगा तो समझ ले हाँ! कर पाएगा कुछ?
- क्यों नहीं? हम घबराने वाले थोड़े ही हैं।

Saturday, May 09, 2009

म्याऊं-म्याऊं

लो देखो इनकी चुस्ती-फुर्ती!


Monday, March 09, 2009

ब्रज की होली

कदम्ब छांव।
मारे होली के दांव।
ब्रज के गांव॥


नंद-यशोदा।
लाए होरी कौ सौदा।
कान्हा है मोदा॥


हे ग्वाल-बाल!
बजाओ ढ़प ताल!!!
मचे धमाल॥


कान्हा कौ सखा।
दामा दाऊ ने लखा।
भागा वो झखा॥


रंग ले भागे।
कान्हा के दामा आगे।
अब ना लागे॥


दाऊ आओ तो!
याकू रगड़ो पोतो!
जो भागे रोतो॥


कृष्ण-सुदामा!
ह्वै रहयो हंगामा!
दाऊ श्रीदामा॥

Sunday, March 08, 2009

होली
















पतझड़ बाद जब पत्ते आते!
पेड़ नए-नए हो जाते!
फूल खिलखिलाकर मुस्काते,
उन पर भंवरे भी मंडराते।
रंग-गुलाल-अबीर उड़ाते,
हम सब टोली में बँट जाते।
भर पिचकारी खूब भिगाते,
गुझिया, पापड़, भल्ले खाते।
हंस-हंस कर सब शोर मचाते,
यूं होली का पर्व मनाते।

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