Tuesday, September 26, 2006

शरद-ऋतु


वर्षा के जाते ही और शीत के आने से पहले शरद-ऋतु अपना प्रभाव दिखाती है। जहाँ वर्षा में हरियाली एक छत्र राज फैलाती है वहीं शीत में अनेक गहरे रंग खिल उठते हैं। बीच में शरद-ऋतु अपने श्वेत-धवल रंग से निसर्ग को चमकाती है। क्या चँद्रमा की चाँदनी! और क्या चाँदनी के पुष्प! सभी प्रकृति को सौम्यता प्रदान करते हैं।
वर्षा के जल से स्वच्छ हुआ पर्यावरण चाँदनी की निर्मलता को धरा पर ऐसे फैला देता है मानों दूधिया पारदर्शी चादर फैला दी हो।

ग्रीष्म में वायु कंजूस और कटूभाषी व्यक्ति जैसा रुप धारण कर लेती है तो शीत में वह ग़रीब के घर ज़बरन ठहरे मेहमान की तरह कष्टकारी प्रतीत होती है और शरद में वह शिशु के कोमल स्पर्श सी अनुभूति कराती है।

नदियाँ ग्रीष्म में महिला मजदूर की भाँति थकी सी लगती हैं तो वर्षा में प्रलय का स्वरुप लगतीं हैं पर शरद में फिरोज़ी परिधान पहने स्नेह छलकाती माँ के समान प्रतीत होती हैं।

शरद-ऋतु कोमलता और सुन्दरता अर्थात माधुर्य-गुण की परिचायक है। प्रकृति की शांत और मोहक छवियाँ अन्तःस्थल की सूक्ष्मपरत तक प्रभावित करती हैं। कहते हैं शरद-चाँदनी में ही राधा-कृष्ण और ब्रज गोपियों ने महारास (जिसे भक्ति,प्रेम और सौन्दर्य की सर्वव्यापकता की अभिव्यक्ति माना गया है) किया था।

सच में शरद उल्लास का समय है। त्योहारों और उत्सवों की रौनक़ मन -हंस को भू-सरोवर में प्रकृति के सुंदर दृश्य रुपी मोती चुगवाती है।

Friday, September 15, 2006

नियम-संयम


नियम-संयम
चाहे कितनी दूर ले जाओ दृष्टि,
झाँककर देख लो पूरी सृष्टि।
कोई भी अलग नजर नहीं आएगा,
हरेक नियमों में बंधा पाएगा।
ब्रह्मांड घूम रहा है नियम से,
ना तेज भाग रहा है बिन संयम के।
सूर्य चमकता है ताप से,
चंद्रमा शांति देता है अपनेआप से।
धरती घूम-घूम कर घूमती है,
मानों किसी को ढूढती है।
वृक्ष खड़े हैं जड़ों के साथ,
नदियाँ बहती हैं लहरों के हाथ।
फूल खिलने का है अपना मौसम,
तारे चमकते हैं करके आसमां रौशन।
फिर तुम क्यों नियम तोड़ते हो,
सारी सृष्टि को इतना छेड़ते हो।
सब कुछ कर दिया है बेलगाम,
जैसे प्रकृति हो तुम्हारी ग़ुलाम।
पर तुम्हारा यह अहं ठीक नहीं,
नयों के लिए कोई सीख नहीं।
मत रखो नियमों को ताक पर,
मत काटो बैठे हो जिस शाख पर।
वरना स्वयं तो अंगभंग हो जाओगे,
साथ में औरों को भी विकलांग कर जाओगे।
यह ब्रह्मांड की रचना नियमों का ही फल है,
नियमों से छेड़छाड़ ही प्रलय का हल है।
जीओ और जीने दो संपूर्ण प्रकृति को,
अनुशान के साथ स्वर्ग बनने दो जगती को॥

Thursday, September 14, 2006

जय-भारती


माँ भारती
माँ का रुप है तू,
ध्वनि का स्वरुप है तू।
तेरे बिन हम अधूरे हैं,
तू ना हो तो बेसहूरे हैं।
तेरे से मिली है वाणी,

तेरे बिन दुनिया ना जानी।
माँ तू तो अभिमान है,
देश का सम्मान है।
तेरे से गुणगान है,
तेरे बिन सूना जहान है।
अपनी बहनों में तू रानी है,
वो तेरी अभिमानी हैं।
देशकाल से ऊपर है तू,
विषय-शैली का गौरव है तू।
अखिल विश्व में पहचान हमारी,
सबके दिलों की प्राणप्यारी।

कपूत उजाड़ पर तुले हैं,
तुझे मारने खड़े हैं।
पर उन्हें है क्या पता?
हम उन्हें देंगे जता!
नष्ट वो करेंगे अपने को,
तैयार हों सजा भुगतने को।
उनकी आवाज घुट जाएगी,
भारती सर्वत्र सुनी जाएगी।

समय अब दूर नहीं है,
हिंदी अब मजबूर नहीं है।

इसका मान बढ़ा है,
इसका सम्मान चढ़ा है।
राष्ट्रगौरव प्राप्त इसे,
राजवर मिला है इसे।
रानी है यह सरकार की,
नहीं परवाह इसे अधिकार की।
यह हृदय में रहती है,
गंगा जैसी बहती है।
इसकी तपस्या करनी है,
संपूर्ण जगत में भरनी है।

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