Thursday, April 27, 2006

प्रकाश के द्वार

भ्रम की रात काली है,
एक अंधेरी जाली है।
जब भी घूम कर देखा
दिखायी दी हर ओर काली रेखा
पर कालिमा के बीच लाली है,
वो आशा की प्याली है।
मन की आंखें खोलकर देखो,
काली जाली उखाड़कर फेंको,
परत दर परत उखड़ेगी,
तब कहीं जाकर रौशनी चमकेगी।
सारी दुनिया साफ़ नज़र आएगी,
अपनी असलियत दिखाएगी।
अगर अंधेरे में ही जीते रहे,
बिना देखे ही दुनिया समझते रहे,
तो अनर्थ बड़ा हो जाएगा,
भ्रम का जाल फैल जाएगा,
निराशा में दम घुट जाएगा।
गर अंधेरे के पार देखोगे,
प्रकाश के द्वार देखोगे,
उस द्वार को खटखटाओगे,
हीनता की संकल गिराओगे,
दरवाज़ा अपने आप खुल जाएगा,
अज्ञानता का परदा हट जाएगा,
सामने होगी दिव्य-ज्योति
जो है जीवन-धन मोती।
बस उसे ही ढ़ूढ़ना है,
अंधेरे के पार प्रकाश को खूंदना है।

Thursday, April 20, 2006

सौंदर्य

सौंदर्य वो है जो मन में सजे,
अपने आप ही सब पर फबे।
सुंदर है फूल,
चाहे कितने हों उसमें शूल।
सुंदर है गगन,
तारों के साथ है मगन।
सुंदर है दिनेश,
गर्म होकर भी है जीवेश।
सुंदर है पवन,
रखता है सबका जीवन।
सुंदर है जल,
जो जीवन का है बल।
सुंदर है धरा,
सौंदर्य जिसमें भरा।
सुंदर है रसातल,
जो छिपाए है हमारा कल।
सुंदर है मानवता,
जो सृष्टि की है छटा।
हां , सुंदरता नैसर्गिक होती है,
जो मन को झकझोर देती है।
फिर क्यों बाहरी फैशन पर ग़ौर हो गया है ?
क्या आंतरिक सौंदर्य कमज़ोर पड़ गया है ?

Wednesday, April 19, 2006

मानवता

हाय री मानवता !
तू कहां खो गयी ?
कितना ढ़ूंढ़ा तुझे ?
पर तू तो गुम हो गयी।
तुझे ढ़ूंढ़ते ढ़ूंढते
तुझ विहीन घूमते घूमते
साक्षात्कार हुआ
झूठ से,
लूट से,
भ्रष्टाचार से,
अत्याचार से,
पर तू तो खो गयी,
मानो स्वर्ग की हो गयी।
छोड़ गयी अपनी देह,
जिसमें नहीं है बिल्कुल नेह।
खोखला आकार छोड़ गयी है,
सबको स्वार्थ की ओर मोड़ गयी है।
इतनी रूठने की क्या पड़ी थी ?
तू तो संसार की जड़ी थी।
क्यों विलीन हो गयी ?
सदा के लिए खो गयी ?
हो सके तो फिर आना,
दुनिया को फिर से सजाना,
तुझ बिन गिरे हुओं को ख़ुद उठाना,
पुनः नया संसार बनाना।

Tuesday, April 18, 2006

काम कोई बुरा नहीं है

काम कोई बुरा नहीं है,
काम कोई बड़ा नहीं है,
काम किया है विवेक से,
समाज-कल्याण की भावना से,
काम किया है लगन से,
चमकाया है परिश्रम से,
तो फिर संदेह ना कर,
बस अपना काम कर।
परिणाम बुरा ना होगा,
तेरा अपमान ना होगा,
जीवन संवर जाएगा,
कष्ट के भंवर में
ना फंस पाएगा।
ना आएंगे बिरंगे भाव तुझमें,
ना सताएंगे संदेह मन में,
तू बलवान बन जाएगा,
जीवन की नाव को
किनारे तक तैराएगा।
बुरे वो हैं जो
कर्म से दूर भागें,
नहीं पता है उनको
वो कितने हैं अभागे !
ना जाने कब ?
नाव उनकी भंवर में फंस जाएगी,
हिचकोले लेगी और डूब जाएगी,
क्योंकि तैर तो वो नहीं पाएंगे,
पर अंतिम समय में
कर्म का भेद जान जाएंगे।

Monday, April 17, 2006

सौंदर्य-बोध

उनको हर चीज सुंदर लगती है,
जीवन में खुशियां हीं खुशियां भरती हैं।
नदियां नाचती नज़र आती हैं,
किनारों को छूती लहर मानों पास बुलातीं हैं।
कुंजवनों की छटाएं लुभाती हैं,
चिड़ियां चहक-चहक कर मन बहलातीं हैं।
पर्वत, दर्रे, घाटी सभी तो स्वर्ग से लगते हैं,
उनको क़दम-क़दम पर छलते हैं।
छोटी सी बरसात की बूंद भी मोती दिखायी देती है,
पृथ्वी पर फैली हरी घास भी मखमल लगती है।
व्योम भी भरा-भरा प्रतीत होता है,
तारों का जमघट बिखरे मोती सा लगता है।
पर मुझे कुछ इतना नहीं भाता है,
ठीक है हरेक पृथ्वी को सजाता है,
पर मेरे मन में इतनी गुदगुदी नहीं कर पाता है।
उनके वर्णन सुनकर मेरा मन कुछ यूं बुदबुदाता है:
मैं मन में इतनी मोहकता कैसे जगाऊं?
अपनी आत्मा को सौंदर्य से कैसे मिलवाऊं?
भूख कुछ सोचने ही नहीं देती है,
निर्धनता सारी मोहकता छीन लेती है।
जब पेट भर खाना मिला हो जीवन में,
तभी सौंदर्य दिखायी देता है हर कण में।
यहां तो लुभाता है बस दो जून खाना,
स्वर्ग बन जाता है झोंपड़ी और चिथड़े में तन सजाना।

Sunday, April 16, 2006

जीवन में रहो सदा......

कभी ओर बन कर,
कभी छोर बन कर,
जीवन में बहो
सदा किनारे बन कर।

कभी सर्द बन कर,
कभी गर्म बन कर,
जीवन में उड़ो
सदा फुहारें बन कर।

कभी फूल बन कर,
कभी शूल बन कर,
जीवन से जुड़ो
सदा बहारें बन कर।

कभी धूल बन कर,
कभी बूंद बन कर,
जीवन में रहो
सदा निस्तारे बन कर।

कभी धूप बन कर,
कभी छांव बन कर,
जीवन में खड़े हो
सदा सहारे बन कर।

कभी रात बन कर,
कभी बात बन कर,
जीवन में चलो
सदा प्यारे बन कर।

कभी सुख बन कर,
कभी दुख बन कर,
जीवन में पड़ो
सदा तुम्हारे बन कर।

Saturday, April 15, 2006

परिवर्तन

बात करने से क्या होगा?
हाथ रखने से क्या होगा?
क़ानून से ना होगा,
सज़ा देने से भी ना होगा,
परिवर्तन तो तभी होगा
जब उतार देगा समाज यह चोगा।

समाज तो हमसे बना है,
हरेक उसमें रमा है,
जब भी परिवर्तन कि बात आती है
हमारी पोलपट्टी खुल जाती है,
परिवर्तन की राह रोक दी जाती है।

इस तरह कुछ ना होगा,
समाज को तोड़ना होगा,
अच्छाई से बुराई को छांटना होगा,
सुख़-दुख़ को बांटना होगा,
कुरीतियों को छोड़ना होगा,
नीतियों को जोड़ना होगा।

परिवर्तन तो तभी होगा,
जब जन जागरण होगा,
जनजागरण तो ज्ञान के प्रकाश में होगा।

पहले इकाई होगी,
फिर दहाई मिलेगी,
धीरे-धीरे सैकड़ा होगा,
बाद में तो सहस्रों सहस्र का रेला होगा,
फिर ना कुछ सोचना होगा,
परिवर्तन तो हर हाल में होगा,
समाज का पुननिर्माण भी होगा।

Friday, April 14, 2006

आदमी

चलो आदमी को आदमी से मिलवाया जाए,
हो सके तो उसका चेहरा ही उसे दिखाया जाए।

पहचानना भूल गया है ख़ुद को आदमी,
बंद कर दी है उसने अपनी सूरत भी पहचाननी।

जब देखा था उसने ख़ुद को आईने में पहले कभी एक बार,
तो था वह एक मासूम सा भोला-भाला इंसान।

बस सोचता था अच्छाई और भलाई की बातें,
नहीं आती थीं कभी उसके जीवन में बुराई की रातें।

ईमान, धर्म, अहिंसा और प्रेम थे उसके गहने,
कपड़े भी रहता था सदा वह बेदाग़ ही पहने।

करता था प्यार हर आदमी हर आदमी से,
रहता था इंसान बनकर बड़ी सादगी से।

करता नहीं याद आदमी उस आदमी को कभी,
याद की पहचान हीं मिटा दीं हैं उसने सभी।

अपने को अपने आप से घुमा रहा है आदमी,
करता है कुछ और दिखा रहा है कुछ और आदमी।

मन के दर्पण में झांकने पर उसे जो दिखता है,
उसे देखकर अपने आप से वो बहुत डरता है।

सूरत आतंक के रंग में रंगी सी है,
ख़ून के छीटों ने उसे भद्दी सी कर रक्खी है।

डरावनी आंखें परछांई भी नहीं देख पा रहीं हैं,
असली चेहरा क्या देखेंगीं, चित्र भी पहचान नहीं पा रहीं हैं।

भूल गया है दुनियादारी पूरी तरह आदमी,
स्वार्थ की रखी है नीति बना उसने अपने आप ही॥

Wednesday, April 12, 2006

अनुगूंज १८ : धर्म का मेरे जीवन में महत्त्व

Akshargram Anugunj धर्म का मेरे जीवन में बहुत महत्त्व है। मैं समझती हूं यदि किसी के जीवन में धर्म नहीं है तो जीवन जीना असंभव सा ही है, पर मुझे नहीं लगता कि संसार में कोई भी जीव अधर्मी है।
धर्म शब्द का प्रयोग दो अर्थों में होता है- एक तो कर्त्तव्यों के लिए और दूसरा धर्मिता(आन्तरिक नैसर्गिक गुण) के लिए। इन्हीं दोनों विचारों की प्रगति और विकास के चरमोत्कर्ष की अवस्था में आज कहलाने वाले धर्म अस्तित्व में आए।
कर्त्तव्य ही धर्म है कर्त्तव्य पालन करना और कराना हमने प्रकृति से सीखा है।
प्रकृति स्वयं नियमों में बंधी है, नियम यानि अनुशासन। नियम भी पंचतत्त्वों के अनुसार भिन्न-भिन्न हैं।
धर्मिता भी नैसर्गिक है। जड़-चेतन दोनों में है जो सूक्ष्म अंतर का कारण है।
प्रकृति, जो स्वयं परिस्थितियों का परिणाम है, हमारी पहली गुरु है।उसने हमें जन्म दिया है उसी ने हमारी विचार-शक्ति को गहन बनाया है। विचारों का चर्मोत्कर्ष भावों को जन्म देता है, यही से शुरु होती है हमारी धर्मिक बहस।
किसी भी धर्म का उदभव एक समय या एक व्यक्ति या एक स्थान पर नहीं हुआ है। हजारों-हजार वर्षों तक अनुभवों की टुकड़ियों को मिलाकर धर्म वितान बने हैं। आवश्यकता आविष्कार की जननी है। व्यक्ति, समुदाय, समाज और राज्य सभी धर्म के बंधन में बंधे हैं। देश(स्थान), काल और परिस्थिति के अनुसार मांग पर विभिन्न धर्मों का अभ्युदय हुआ । जब धर्म प्रस्थापित हुए, तब उनको पूर्ण मान्यता थी क्योंकि उस समय वह माक़ूल थे, आज जैसे (स्वार्थवश मुड़े-तुड़े) नहीं। जैसे जैसे भौतिक संसाधन बढ़ते गये मानव मस्तिष्क सुखों की चाहना के इर्द-गिर्द घूमने लगा और नैतिकता (धर्म) से ध्यान हटाने लगा जिसके परिणामस्वरुप धर्म की आत्मा तो दब गयी है और बाहरी (कुरीतियां, आडम्बर, नाटकीयता और गुटबंदी) खोल ही दिखायी देने लगा है।

हरेक धर्म समाज के नैतिक पतन (परिस्थिति) के दौर में फलाफूला है। पतित विचारों के वातावरण में धर्म (नैतिक कर्त्तव्य) ही बुराइयां दूर करने में समर्थ होते हैं, परंतु इसका अर्थ यह नहीं कि सामान्य परिस्थितियों में नैतिक व्यवहार की आवश्यकता नहीं होती। यही नैतिकता का पाठ युगांतर से धर्म की गद्दी पर बैठा हुआ है और समय समय पर गद्दी संभालने वाले इसका दुरुपयोग भी करते रहे हैं। जीवन के हर बिंदु पर हमने जो बुराइयां बढ़ायीं है वही सब धर्म के परिप्रेक्ष्य में भी लागू होती हैं। यदि समाज में किसी भी बिंदु पर नकारात्मकता ना होती तो फिर धर्म का भी अस्तित्त्व ऎसा ना होता, जो एक असंभव सी बात है।
बात आज के दौर की करते हैं। आज भौतिक-विज्ञान का युग है। सर्वत्र पदार्थों और रसायनों को प्रधानता दी जा रही है। सारे सुख भौतिक रुप में ढू़ढे़ जा रहे हैं।भावनात्मक सुखों के लिए भी भौतिक साधनों की ओर ताकते हैं! यही विरोधाभास धर्म को प्रश्न बना देता है, जबकि उसमें संपूर्ण जीवन की समस्याओं के उत्तर छिपे हैं। ज़रुरत बस सूक्ष्मताओं को प्रकाशित करने की है।
इस प्रकार धर्म नियमों का पुलिंदा है जो हमें जीवन की यात्रा में आने वाली हर बीमारी से बचाता है और बीमार होने पर इलाज भी करता है। नियमों को व्यापकतम अर्थ में समझने पर धर्म का अर्थ पूर्णतः स्पष्ट हो जाता है।
मनुष्य का मस्तिष्क अत्याधिक विकसित है, वह अपनी स्पर्धा में स्वयं हार जाता है, अपने बनाए नियमों को ही ग़लत साबित करने की फिराक़ में रहता है , क्या करे प्रकृति ही ऎसी विकसित हुई है शक्ति को ही प्रमुख मानता है, सत्ता की लालसा में जीता है, फिर धर्म भी इसी सोच का शिकार हुए हैं।जब किसी भी धर्म का प्रादुर्भाव हुआ तो वह एक अनिवार्य रुप था परंतु परिवर्तन के अभाव मे( कारण चाहे अज्ञानता हो या स्वार्थ) उनका जीवन में महत्त्व ही संदेह के घेरे में घिर गया है, पालन की तो फिर बात ही दूर हो जाती है। धर्म बनाए भी मनुष्य ने हैं और विकृत भी वही करता आया है।
धर्म को पालन करने का तरीक़ा उस का क्रियारुप है। जिसमें रीति-रिवाज़ संस्कृति, कला, मोहकता, संवेदनाओं और मनोविज्ञान से जुड़े पक्ष है, जिनका महत्त्व तो कभी कम नहीं हो सकता हां अनुसंधान और विकास के अभाव में विकृति यहां भी बहुत है। समय और ज्ञानवृद्धि के साथ साथ बदलाव की आवश्यकता वहां भी है, जिसकी पूर्ति जन-जागरण से ही संभव है।
समग्र और अतिव्यापक दृष्टिकोण से देखें तो धर्म का महत्त्व लेशमात्र भी कम नहीं हुआ है, बल्कि और ज़्यादा ज़रुरी हो गया लगता है, हां धर्म को संकीर्णता और कठोरता से परे होना चाहिए। विभिन्नता में एकता के साथ सभी धर्मों में अनुसंधान होने चाहिए ताकि प्राचीन विचार संपदा का सदुपयोग हो नाकि स्वस्थ समाज अविश्वास करने लगे।
धर्म डरने या डराने के लिए नहीं बल्कि जीवन में सुख-शांति और त्याग-प्रेम अपनाने के लिए हैं बशर्ते विकार रुपी वायरस से निजात पा लिया जाए। इसप्रकार हर धर्म स्वीकारणीय और नितांत महत्त्वपूर्ण हैं। जनजागरण और अज्ञानता का समूल नाश धर्मों को नए रुप में पुनः स्थापित कर सकते हैं।
अंत में स्वरचित पंक्तियों के साथ धर्म का जीवन में आज भी पूरा महत्त्व समझती हूं।
धर्म की दीवार ना बने,
धर्म की तलवार ना चले,
ओ धर्म के ठेकेदारों!
धर्म का अधिकार ना रहे,
धर्म कर्त्तव्य ही रहे,
मानवता जिसका मंतव्य रहे।

Tuesday, April 11, 2006

चींटी तुम !

चींटी तुमने क्या दृढ़ इच्छा-शक्ति पायी है !
सारी सृष्टि की बात झुठलायी है।
ना सोती हो, ना रोती हो,
सारा जीवन कर्म का बोझ ढ़ोती हो !
क्या तुम्हें आराम करना अच्छा नहीं लगता?
या फिर काम करना ही आराम लगता है।
हम तो जल्दी थक जाते हैं,
पूरा पूरा आराम फरमाते हैं,
इस पर भी अनेक रोग लग जाते हैं,
सारा बल डाक्टर के पास जाने में लगाते हैं।
तुम कभी बीमार नहीं होतीं ?
ना कभी डाक्टर की सलाह लेतीं,
बस इधर से उधर जाती रहती हो,
सब मिलकर भगती रहती हो।
क्या यह बात मनुष्य को नहीं समझाओगी,
उसका शरीर आरामपरस्त हो गया है।
उसका सारा ध्यान सुखों की ओर हो गया है,
उसे इतना नहीं बतलाओगी ?
परिश्रम से ही ज़िंदगी संवरती,
आराम से ही परेशानी मिलती।

Monday, April 10, 2006

जीवन की नदी गहरी है

जीवन की नदी गहरी है,
जो ना कभी ठहरी है,
लहर लहर बहती है,
सुख-दुख के किनारे छूती रहती है।
जीविका की नाव चलती है,
परिश्रम से दौड़ती है।
थकते ही रुकनी शुरु हो जाती है,
लहरों के थपेड़ों से थोड़ा ही चल पाती है।
यदि चाहते हो फांट का पार पाना,
अथाह जल को तैर जाना,
तो नदी से ही तैरना सीखना पडे़गा,
उसकी लहरों की तरह किनारों से दूर जाना पडेगा।
जिंदगी का असली मज़ा भी बीच नदी में ही आता है,
किनारे पर बैठे रहने से तो मन जीते जी मर जाता है।

Sunday, April 09, 2006

धरती तुम!

रात को इतनी सुंदर क्यों लगती हो?
ऎसा लगता है पूरा श्रंगार करती हो।
अंधकार की गहरी साड़ी फबती है,
उस पर तारों जड़ी चुंनरी भी जंचती है,
चुंनरी में छापे जैसे बादलों के टुकड़े लगतेहैं,
उस पर चांदनी के रंग भी उभरते हैं,
जो और अधिक सुंदरता में वृद्धि करते हैं।
सन्नाटे में तुम्हारी छवि मुग्ध करती है,
लगता है सारी स्त्रियां
तुम्हें देखकर सजतीहैं।
छलना का रुप धर लेती हो,
सारी सृष्टि के होश छीन लेती हो।
संपूर्ण अस्तित्व शांत हो जाता है,
बस तुम्हारा व्यक्तित्व ही आभास जताता है।

Saturday, April 08, 2006

हमारी बात मान लो

बहुत हो गया अत्याचार,
फैल गया भ्रष्टाचार,
अब इसे लगाम दो,
विराम की ठान लो,
तभी क्रांति आएगी,
सारे में शांति छाएगी।
हरेक को प्रतिज्ञा करनी है,
पापों की छटनी करनी है।
धन-संपदा की चाहत में
मत फंसो पूरी तरह आफत में।
यह तो नरक का रास्ता है,
बुराइयों का नाश्ता है।
एक बार धन की इच्छा जाग्रत होने पर,
मन नहीं लगता सोने पर।
सपने में भी चालाकी सूझती है,
बार-बार बेईमानी के हल पूछती है।
आत्मा तो मर ही जाती है
बुद्धि बेकाबू हो जाती है।
बस समझ लो भ्रष्टता शुरु हो गयी,
पूरी तरह दृष्टि ख़त्म हो गयी।
कोई दिखायी नहीं देता है,
बस धन का ही ब्यौरा होता है।
शोषण का शौक़ चढ़ जाता है,
ध्रष्टता को भी मौक़ा मिल जाता है।
अपना कोई ना रह पाता है,
किसी का प्यार ना मिल पाता है।
धन कर देता है दूर सबसे,
पास रख देता है बुराई अब से।
समय रहते जान लो,
इस अर्थ को पहचान लो।
यह तो दल-दल है,
जो फंसाता हर पल है।
समाज को तोड़ देता है,
परस्पर अंतर कर देता है।
बराबर खड़े आगे पीछे हो जाते हैं,
हीनता के बीज पक जाते हैं।
कर्त्तव्य-भावना मर जाती है,
ना दूसरों की परवाह रह जाती है।
फिर पछताना पड़ता है,
जीवन कांटों में अड़ता है।
अब इसे सुधार लो,
ज़्यादा है तो दान दो।
सबको एकसा मान लो,
गिरे हुओं पर भी कुछ ध्यान दो।
उठाकर उन्हें खड़ा कर लो,
हाथ पकड़कर साथ चल दो।

Friday, April 07, 2006

सच्ची इबादत

सिर्फ मंदिर में जाकर ही पूजा नहीं होती,
सच तो यह है कि पूजा कि कोई जगह नहीं होती।
इबादत नहीं है सिर्फ मस्ज़िद में जाकर सर झुकाना,
एक और इबादत है परोपकार के काम में मन लगाना।
गुरुद्वारे में मत्था टेकने से सब कुछ होगा,
अगर गुरुओं की सीख को मन में भरा होगा।
गिरिजाघर में सच्ची प्रार्थना कैसे होगी?
अगर हमारी आत्मा जाग्रत नहीं होगी।
ना समझ बनकर समय ना गवांओ,
सबसे पहले अपने मन को समझाओ।
पृथ्वी पर ही स्वर्ग और नरक है,
इस पर ही समस्त दुर्गंध और महक़ है।
जिसे मानते हो भगवान या ख़ुदा,
वो ही तुम्हारी आत्मा में है नहीं तुमसे ज़ुदा।
सच्ची इबादत है पृथ्वी पर प्रेम बरसाना,
हिंसा और नफ़रत को जड़ से मिटाना।
करनी है सेवा तो करो नदियों की,
बनाए रखो पवित्रता उनकी सदियों की।
रक्षा हो उन वृक्ष देवताओं की,
जो रक्षा करते हैं हमारी सांसारिक वेदनाओं की।
झुकाओ सिर आराध्य सूर्य के भी आगे,
ब्रह्मांड का पिता है जो सृष्टि का आधार लागे।
पवित्र रखो पवन को भाव-भक्ति से,
कभी जीवन नहीं होगा बिन उसकी शक्ति के।
करनी है पूजा अगर भगवान की,
तो बढ़ाओ सामंजस्य और इज़्ज़त इंसान की।
सब प्राणियों में ही ख़ुदा का वास है,
जो करता है प्यार जीवों से वही उसके पास है।

Thursday, April 06, 2006

महान बनाता है शिखर

जंगलों के बीच सजे से तुम,
गगन को छूते से लगे तुम,
चंद्रमा लगा तुम्हारे पास,
तारे देते थे नज़दीकी का आभास,
तुम ऎसे अडिग खड़े,
जैसे कई दिग्गज अड़े,
बादल गोदी में खेलते हैं,
लगता है तुम्हें छेड़ते हैं,
धूप का था रंग चढ़ा,
पेड़ों ने किया तुम्हें हरा,
विशाल हृदय का रुप हो,
दॄढ़-शक्ति का स्वरुप हो,
लगता है हो अटल विश्वास,
संतोष का पूर्ण अहसास,
ऊंचाई बताती है बड़प्पन,
ढ़लान दिखाता है लड़कपन,
महान बनाता है शिखर,
देखकर होता है मन मुखर!
अपनेआप होकर ऊंचे,
करते हो मस्तक ऊंचा उनका
जो खड़े देखते हैं तुम्हें नीचे।

वंदन करते हैं हॄदय से

वंदन करते हैं हॄदय से
वंदन करते हैं हॄदय से,
याचक हैं हम  ज्ञानोदय के,
वीणापाणी शारदा मां !
कब बरसाओगी विद्या मां?
कर दो बस कल्याण हे मां।
हे करुणामयी पद्मासनी!
हे कल्याणी धवलवस्त्रणी!
हर लो अंधकार हे मां,
कब बरसाओगी विद्या मां ?
कर दो बस कल्याण हे मां।
जीवन सबका करो प्रकाशित,
वाणी भी हो जाए सुभाषित,
बहे प्रेम करुणा हॄदय में,
ना रहे अज्ञान  किसी में,
ऎसा  दो वरदान हे मां,
कर दो बस कल्याण हे मां।
ज्ञानदीप  से दीप जले,
विद्या धन का रुप रहे,
सौंदर्य ज्ञान  का बढ़ जाए,
बुद्धी ना कुत्सित हो पाए,
ऎसा देदो वरदान हे मां!
कर दो बस कल्याण हे मां!
कर दो बस कल्याण हे मां॥

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