Wednesday, October 08, 2008

हम हैं राक्षस



ये हैं केबिन महाशय। ये साढ़े चार साल के हैं। इनके घर के पास ही रामलीला होती है। ये रोज शाम को अपने भाई और दोस्तों के साथ पार्क में खेलने जाते हैं। पार्क के बाहर ही दुकानें सजी हैं। बस रोज नए सामान आ जाते हैं। कल ये रुप सजाया गया।

Sunday, October 05, 2008

नन्हों के लिए


कबूतर
कबूतर! इतना मोटा क्यों?
ज्यों चील का पोता हो!
पंजे-चोंच लाल हैं पर!
‘ग्रे कलर’ है तेरा क्यों?


(२)

बिल्ली

बिल्ली न्यारी-न्यारी है,
‘म्यांऊँ’ करती प्यारी है।
छूने में रूई ज्यों,
पंजे इतने तेज क्यों?



(३)

डॉगी

डॉगी भौं-भौं करता है,
बात का पक्का है!
प्यार बहुत वह करता है,
मालिक के लिए मरता है!



(४)

चींटी

चींटी! इतनी छोटी हो?
मोटी क्यों नही होती हो?
भागी-भागी रहती हो,
क्यों नहीं रुकती रहती हो?

Tuesday, September 16, 2008

सबसे छोटे हैं सबसे बड़े!




और हम अपने भतीजे के बेटे की बुआ दादी बन गए।
पाँच सितंबर को अचानक मूवमेंट कम हो जाने पर डॉक्टर से सलाह ली तो उसने शल्यक्रिया करके बच्चे को जन्म देने की फुर्तीली सलाह दी जो सर्वसम्मति से तत्काल मान ली गयी। और इस तरह ये महानुभाव दुनिया में आगए। यह नयी पीढ़ी के सबसे बड़े बुजुर्ग बनें। यूँ हमारे परिवार की सबसे छोटी लड़की का खिताब हमारे ही पास है। चाहे हम बूढ़े ही क्यों न हो गए हैं।
दुनिया में आते ही इन्होंने आँसूओं से रोना शुरु कर दिया। भूख से तड़पते हुए अपना पूरा अँगूठा अपने मुँह में भर कर लगे चपड़-चपड़ चूसने। नर्स को खींचकर हाथ बाहर निकालना पड़ा कहीं गला ही न घोंट लें। आजकल इनका काम भूख शांत करना और मल त्यागना है। पर हैं बड़े क्यूट!!!

Friday, September 05, 2008

तितली


रंग-रंग के पंखों वाली,
भागी-भागी, आती-जाती,
फूलों पर और डाली-डाली।
न तो पूछे, न तो बताती
,
क्या तू पिये, क्या तू खाती?
घूमे बस यूँ ही बलखाती।
जब हम भागें तेरे पीछे,
तू ऊपर और ऊपर दीखे,
तुझे पकड़ना कैसे सीखॆं?
तेरे घर का पता हैक्या?,
कब जागे तू बता तो आ,
करले दोस्ती अब न सता

Tuesday, August 26, 2008

प्रचंड वेगिनी

बद्रीनाथ से कुछ ही दूरी पर माणा गाँव है। जो भारत का अंतिम गाँव माना जाता है कहते हैं उसके बाद चीन की पहाड़ियाँ शुरु हो जाती हैं। माना गाँव और बद्रीनाथ के बीच में गणेश गुफा और व्यास गुफ़ा पड़ती हैं,
उसके नज़दीक ही सरस्वती गिरती है।
कथा प्रचलित है कि वेदव्यास अपनी गुफ़ा से बोलते जाते थे और गणेशजी लिखते जाते थे, इसप्रकार वेद-पुराण लिखे गए। सरस्वती इतने वेग और ध्वनि से नीचे गिरती थी कि व्यासजी ने सरस्वती को बार-बार समझाया कि ध्वनि कमकरले व्यवधान होता है पर वो मानी ही नहीं तब व्यास ने उसे धमकाया कि वे उसे छिपा देंगे तब भी सरस्वती न मानी तो व्यास ने उसे अलकनंदा में मिला दिया। पर सरस्वती का वेग और धवनि आज भी पूरे प्रचंड रुप में देखा जा सकता हैं। ऊँचाई से और प्रबल वेग से गिरने के कारण इतना शोर मचाती है और छींटे फेकती है कि हर कोई डरा सा हो जाता है। उसकी विकरालता देखकर लगता है पता नहीं क्या करके रहेगी।
सरस्वती बीच में एक बहुत बड़ी चट्टान नदी के बिल्कुल बीचों-बीच अटकी हुई है, कहते हैं कि यह भीम का पुल है। जब पांडव हिमालय पर चढ़ रहे थे तो बीच में सरस्वती आगयी। द्रोपदी को पार उतारने के लिए भीम ने एक बड़े पाषाड को गिराकर नदी पार करायी। उसके आगे स्वर्गारोहण मार्ग है। वहाँ से पांडव स्वर्ग चले गए।
जो एक बार सरस्वती को देख ले वह उसकी प्रचंडता कभी भूल नहीं सकता।

Sunday, August 17, 2008

श्रद्धा-सुमन







वीर वो ही नहीं जो
आज़ादी के लिए मरे।
वीर वो भी हैं जो
देशहित चल बसे।
वीर वो भी हैं
देश रक्षा में खड़े।
दुश्मन से भिड़े-अड़ें।
आओ उनकी भी यशगाथा गाएं,
सच्चे दिल से श्रद्धा-सुमन चढ़ाएँ।

Monday, June 23, 2008

गंगा




गंगोत्री जैसे-जैसे पास आ रही थी वैसे-वैसे ही मेरा मन आतुर था मानो मैं अपने किसी सगे संबंधी के पास पहुँचने वाली हूँ। हूँ भी क्यों न? मेरा गंगा से बचपन का सहेलीपन है। जीवन की शुरुवात के बीस-बाइस साल गंगा की गोद में बिताए हैं। वह मेरी अपनी है। यही भाव मुझे आँखें भिगोने को मजबूर कर बैठा। सारी यादें सामने घूमने लगीं। कैसे हम भाग-भागकर गंगाजी में नहाने जाते थे, कैसे कूद लगाते कैसे तैरना सीखा और कैसे उसके किनारे पर बैठकर लहरों के साथ मन को दौड़ाया।
सूरज को उसके सामने वाले किनारे पर कूदकर उदय होता देखा! तो शाम को छिपते। उसके किनारे की रेतीली भूमि में तरबूज-खरबूज, ककड़ी,लौकी, काशीफल और सेंद-फूंट का मज़ा लिया। कैसे मस्त दिन थे। कभी कॊई चिंता नहीं। और अगर हुई भी तो गंगा मैया को सौंप दी। बेड़ा पार करियो मैया!
गंगा किनारे हर पर्व पर स्नान और मेला तो वहाँ का सबकुछ था। अब मेले नहीं मॉल हैं। पर उन मेलों सी बात कहाँ?
गंगा में दूध चढ़ा कर अपनी मनौती तो पूरी करी ही जाती थी पर साथ ही साथ गंगा की स्वच्छता के लिए भी यह बहुत अच्छा था।
गंगा में थूकना और कपड़े धोना मना था, नाली का पानी गिराया जा ही नहीं सकता था। कहाँ है वो गंगा जो निर्मल और उज्जवल थी। हम क्यों इतने बे ईमान हो गये हैं?

Saturday, June 14, 2008

दृष्टिकोण


पर्वत हमेशा ही आकर्षित करते हैं। मुझे तो ऐसा लगता है जैसे कह रहे हों दूर क्यों हो पास आकर देखो, मुझे चिढ़ाते से लगते हैं मानों कहरहे हों उँचा उठकर दिखाओ...

नवागंतुक २

मिनी शर्मा का ब्लॉग तैयार है। बस हिंदी मॆं लिखने के मन की तैयारी चल रही है। जो चाहे पढ़े और हौंसला बढ़ाए-
minitrendy

Tuesday, May 27, 2008

नवगन्तुक१-

एक नया ब्लॉग-

ashoktiwaridotblogdotकॉम
यह ब्लॉग डॉ० अशोक तिवारी का है। अभी बहुत कुछ परिवर्तन की आवश्यकता वाला यह ब्लॉग नित्य नयी विषय सामग्री पढ़वाएगा। इसी आशा के साथ हमारी हार्दिक शुभकामनाएँ!

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