Monday, June 23, 2008

गंगा




गंगोत्री जैसे-जैसे पास आ रही थी वैसे-वैसे ही मेरा मन आतुर था मानो मैं अपने किसी सगे संबंधी के पास पहुँचने वाली हूँ। हूँ भी क्यों न? मेरा गंगा से बचपन का सहेलीपन है। जीवन की शुरुवात के बीस-बाइस साल गंगा की गोद में बिताए हैं। वह मेरी अपनी है। यही भाव मुझे आँखें भिगोने को मजबूर कर बैठा। सारी यादें सामने घूमने लगीं। कैसे हम भाग-भागकर गंगाजी में नहाने जाते थे, कैसे कूद लगाते कैसे तैरना सीखा और कैसे उसके किनारे पर बैठकर लहरों के साथ मन को दौड़ाया।
सूरज को उसके सामने वाले किनारे पर कूदकर उदय होता देखा! तो शाम को छिपते। उसके किनारे की रेतीली भूमि में तरबूज-खरबूज, ककड़ी,लौकी, काशीफल और सेंद-फूंट का मज़ा लिया। कैसे मस्त दिन थे। कभी कॊई चिंता नहीं। और अगर हुई भी तो गंगा मैया को सौंप दी। बेड़ा पार करियो मैया!
गंगा किनारे हर पर्व पर स्नान और मेला तो वहाँ का सबकुछ था। अब मेले नहीं मॉल हैं। पर उन मेलों सी बात कहाँ?
गंगा में दूध चढ़ा कर अपनी मनौती तो पूरी करी ही जाती थी पर साथ ही साथ गंगा की स्वच्छता के लिए भी यह बहुत अच्छा था।
गंगा में थूकना और कपड़े धोना मना था, नाली का पानी गिराया जा ही नहीं सकता था। कहाँ है वो गंगा जो निर्मल और उज्जवल थी। हम क्यों इतने बे ईमान हो गये हैं?

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