Friday, June 30, 2006

सोच

हम( मानव) विकास की चरम सीमाओं को छू रहे हैं, सर्वत्र विज्ञान के चमत्कारों की चकाचौंध है। जीवन में भौतिक सुखों की बढ़ोत्तरी हुई है या यूँ कह सकते हैं कि जीवन जीना बहुत आसान हो गया है। वैज्ञानिक सोच बढ़ी है-तर्क, विश्लेषण और प्रतिक्रिया के गुण व्यवहार में ज़्यादा दिखायी देते हैं। सूचना-तकनीक ने तो कायाकल्प ही कर दिया है। ब्रह्मांड की दूरी पूर्णतः समाप्त करने की ठान ली है।
एक भी विषय या क्षेत्र ऎसा नहीं है जहाँ अनुसंधान ना हो रहे हों, परंतु ‘क्या हम सही दिशा में सोच रहे हैं?’ यह अनुसंधान अभी बहुत पिछड़ा हुआ है क्योंकि हम खोजों के विषय,उपकरण, प्रयोग और तत्काल अनुभवों एवं निष्कर्षों को ही अंतिम रुप मान लेते हैं। प्रभाव के बाद आने वाले परिणामों को या तो उपेक्षित रखा जाता है या फिर दुष्परिणाम निकल आने पर उस बारे में सोचा जाता है। इसके अतिरिक्त सभी विषयों का परस्पर संगठित ना होना भी एक कारण हो सकता है। उदाहरणतः चिकित्सा विज्ञान ने तो मृत्यु दर घटा दी परंतु समाजविज्ञान विसंगतियाँ ना हटा पाया और वृद्ध-समस्या का जन्म हो गया या कृषि-विज्ञान ने तो फसल पैदावार बढ़ा दी परंतु कई देशों में भुखमरी फैली हुई है। इस तरह हम बहुत आगे बढ़कर भी बहुत पीछे हैं। विज्ञान तो दुर्गम्य रास्तों पर प्रकाश फैला रहा है परन्तु चलने वाले ही ग़लत मुड़ जाएँ तो!

Wednesday, June 28, 2006

आकर्षण

मेरा तुमसे क्या संबंध है?
जिसमें ना कोई बंध है,
समय का कोई भेद नहीं,
दूरी नज़दीकी का खेद नहीं।
रात को तुम मन के दरवाज़े खोलते हो,
ना जाने क्या-क्या बोलते हो।
मैं आकर्षित हो जाती हूँ,
नयनों के रथ पर चढ़ जाती हूँ
और तुम्हारी ओर खिचती चली आती हूँ।
तुम ना जाने कहाँ चले जाते हो,
जितनी पास आऊँ उतना दूर हो जाते हो,
ना अपना आभास जताते हो।
नक्षत्र मुझे लुभाते हैं,
अपनी-अपनी ओर बुलाते हैं,
तुम्हारी हक़ीकत बताते हैं।
चँद्रमा भी मुस्कराता है,
मुझे चाँदनी से मिलवाता है,
तुम्हारी शून्यता बताता है।
बड़ी मुश्किल से विश्वास आता है,
फिर भी ध्यान तुम्हारी ओर ही जाता है,
तुम्हें खोजता रह जाता है।
ना जाने यह कैसा आकर्षण है,
अँधेरे में शून्य का निमँत्रण है,
जो खींचता अपनी ओर हर क्षण है।

Tuesday, June 27, 2006

कबूतर की कहानी

मेरे घर एक कबूतर और उसकी रानी हैं,
बिन कहे वो कहते एक कहानी हैं।
दोनों पक्के साथी हैं
जैसे दीया और बाती हैं।
प्यार करते हैं परस्पर इतना
समुद्र में जल है जितना।
रहते हैं दोनों बनकर जोड़ा,
काम करता नहीं कोई थोड़ा।
घोंसला बनाते हैं दोनों मिलकर,
अंडे रखाते हैं दोनों एक एक कर।
अपना काम कोई दिखाता नहीं,
आदमी की तरह अहसान जताता नहीं।
कबूतर भी चुग्गा लाता है,
बच्चे को भी सहलाता है।
आपस में समझबूझ है,
हमारी तरह गृहस्थी में ना खीझ है।
कभी उन्हें लड़ते देखा नहीं,
उनके जीवन में मुटाव की रेखा नहीं।
बच्चों का पालन करते हैं,
पर मोह उनका नहीं करते हैं।
कर्तव्य-भावना रखते हैं,
अनुशासन उनमें भरते हैं।
प्यार का दिखावा करते नहीं,
हमारी तरह इच्छा रखते नहीं।
आत्म-निर्भर होने पर छोड़ देते हैं,
उनको उनके जीवन से जोड़ देते हैं।
संभव हो तो सीख लो,
मोह छोड़ कर्तव्य की लीख लो।

Saturday, June 17, 2006

संक्षेप में


राह चलते चलते
पत्थर से जो टकराया,
बड़ी मुश्किल से
गिरने से बच पाया।
फिर भी पैर तो
रक्त से लथपथाया।
पर संतोष है कि
भविष्य में ठीक से
चलना तो आया।


धोखे से वार करने वालों
वार का मतलब तो जानो,
वार करने वाले वीर होते हैं,
सामने डटते हैं और धीर होते हैं।
पीछे से वार करने वाले होते हैं कायर,
वीरता तो दूर मन पूरी तरह
होते हैं घायल।


उड़ती तो पतँग भी है
पर पँछी नहीं होती।
लगती ही तो उड़ती सी है
पर डोर से बँधी होती।
घूम सकती है उतना
जितनी डोर हो साथ।
पँछी तो उड़ता है चाहे जितना
आता नहीं कभी किसी के हाथ।

(१ एवं ३ अनुभूति में प्रकाशित हो चुकी हैं।)

Wednesday, June 14, 2006

सच का नशा

हमें तो सच बोलना सिखाया,
झूठ के ख़िलाफ लड़ना बताया,
पर बात कुछ और है,
झूठ पर बहुत ग़ौर है।
सच तो कोने में पड़ा रहता है,
झूठ ही आगे बढ़-चढ़ कर रहता है।
सच अगर मुँह उठाए भी,
झूठ बैठा देगा बिन बताए ही।
सच को लोग मारना चाहते हैं,
सच्ची बातों को छोड़ना चाहते हैं।
सच्चे को हटाना चाहते हैं,
झूठे को लाना चाहते हैं।
झूठा ही झूठे की हिमायत करेगा,
सच्चा तो सच्चों के लिए मरेगा।
पर सच्चे हैं कहाँ?
झूठे ही दिखायी देते हैं यहाँ-वहाँ,
इसलिए लोग सच को झूठ कहते हैं,
अपने आप एक छ्लावे में जीते हैं।
कैसे समझाऊँ उन्हें यह बात?
सच और झूठ अलग करो एक साथ।
वरना विश्वास मर जाएगा,
श्रद्धा का गला रूँध जाएगा,
कर्म हार जाएगा,
अपराध फल जाएगा,
सबको झूठे जाल में फँसाएगा,
उजाले में अँधेरा नज़र आएगा।
इसलिए सच को अपनाओ हर काम में,
डूब जाओ सच के जाम में।
सच का नशा ग़र एक बार चढ़ जाएगा,
लाख करो जतन कभी उतर नहीं पाएगा।

Sunday, June 11, 2006

'नमन कैसे करूँ'

(अनुगूँज २०)Akshargram Anugunj


नमन कैसे करूँ?
सुमन कैसे धरूँ?
दूँ श्रद्धांजलि कैसे तुझे?
शर्म आती है मुझे।
जो देकर गये थे तुम हमें,
खुद को खोकर छोड़ गये थे हमें,
था जो बलिदान दिया तुमने,
भारत माँ को दिलाया मान तुमने,
हमने उसे समझा अपनी विरासत,
बस उसे सोचा आराम की सहायक।
कर दिया भ्रष्टता का चलन,
भर दी एक दूसरे में जलन।
हिम्मत नहीं है तुम्हारी प्रतिमा से आँख मिलाने की,
तुम पर श्रद्धा से सिर झुकाने की।
मन में तूफ़ान उठते हैं,
दोनों हाथ जुड़ने से रुकते हैं।
आत्मा ग्लानि से भर रही है,
बार-बार यह प्रश्न कर रही है-
क्या हक़ है हमें?
यूँ खिलवाड़ करने का,
केवल स्वार्थ के भाव रखने का।
आज फिर क़सम लेते हैं
देश की एकता को अपनी जान समझते हैं।
अब ना भूलेंगे तुम्हारे आदर्श,
तुम्हारे दिये गये परामर्श।
प्यार की सूखी नदी को बहाएँगे,
जीवन में ईर्ष्या मिटा समानता लाएँगे।
भेद-भाव को पतझड़ करेंगे,
देश को नयापन देंगे।

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