Tuesday, June 27, 2006

कबूतर की कहानी

मेरे घर एक कबूतर और उसकी रानी हैं,
बिन कहे वो कहते एक कहानी हैं।
दोनों पक्के साथी हैं
जैसे दीया और बाती हैं।
प्यार करते हैं परस्पर इतना
समुद्र में जल है जितना।
रहते हैं दोनों बनकर जोड़ा,
काम करता नहीं कोई थोड़ा।
घोंसला बनाते हैं दोनों मिलकर,
अंडे रखाते हैं दोनों एक एक कर।
अपना काम कोई दिखाता नहीं,
आदमी की तरह अहसान जताता नहीं।
कबूतर भी चुग्गा लाता है,
बच्चे को भी सहलाता है।
आपस में समझबूझ है,
हमारी तरह गृहस्थी में ना खीझ है।
कभी उन्हें लड़ते देखा नहीं,
उनके जीवन में मुटाव की रेखा नहीं।
बच्चों का पालन करते हैं,
पर मोह उनका नहीं करते हैं।
कर्तव्य-भावना रखते हैं,
अनुशासन उनमें भरते हैं।
प्यार का दिखावा करते नहीं,
हमारी तरह इच्छा रखते नहीं।
आत्म-निर्भर होने पर छोड़ देते हैं,
उनको उनके जीवन से जोड़ देते हैं।
संभव हो तो सीख लो,
मोह छोड़ कर्तव्य की लीख लो।

1 comment:

Anonymous said...

शब्द साधारण होते हुए असाधारण सीख दे गए ।

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