रात को इतनी सुंदर क्यों लगती हो?
ऎसा लगता है पूरा श्रंगार करती हो।
अंधकार की गहरी साड़ी फबती है,
उस पर तारों जड़ी चुंनरी भी जंचती है,
चुंनरी में छापे जैसे बादलों के टुकड़े लगतेहैं,
उस पर चांदनी के रंग भी उभरते हैं,
जो और अधिक सुंदरता में वृद्धि करते हैं।
सन्नाटे में तुम्हारी छवि मुग्ध करती है,
लगता है सारी स्त्रियां
तुम्हें देखकर सजतीहैं।
छलना का रुप धर लेती हो,
सारी सृष्टि के होश छीन लेती हो।
संपूर्ण अस्तित्व शांत हो जाता है,
बस तुम्हारा व्यक्तित्व ही आभास जताता है।
5 comments:
प्रेमलता जी,
आपने प्रकृति का सुन्दर वर्णन करके मुझे हजारी प्रसाद द्विवेदी की
याद दिला दी। बहुत बढ़िया लिखा है। बधाई हो।
एक सुझावः आगे से अपनी रचना टाईप करने के पश्चात उसखी वर्तनी एवम्
दो शब्दों के बीच का रिक्त स्थान जाँच लिया करें।
रचना अच्छी लगी धंयवाद शैलेश। सुझाव पर ध्यान रहेगा।
शुभेच्छु
प्रेमलता
बहुत अच्छा वर्णन है, सुंदर भावों का.
बधाई..
समीर लाल
अद्भुत चित्रण है प्रकृति का, शब्दों का संयोजन भी अच्छा बन पड़ा है।
-दीपक
धरती का सजीव चित्रण.........
बहुत सुंदर ..........
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