Wednesday, April 19, 2006

मानवता

हाय री मानवता !
तू कहां खो गयी ?
कितना ढ़ूंढ़ा तुझे ?
पर तू तो गुम हो गयी।
तुझे ढ़ूंढ़ते ढ़ूंढते
तुझ विहीन घूमते घूमते
साक्षात्कार हुआ
झूठ से,
लूट से,
भ्रष्टाचार से,
अत्याचार से,
पर तू तो खो गयी,
मानो स्वर्ग की हो गयी।
छोड़ गयी अपनी देह,
जिसमें नहीं है बिल्कुल नेह।
खोखला आकार छोड़ गयी है,
सबको स्वार्थ की ओर मोड़ गयी है।
इतनी रूठने की क्या पड़ी थी ?
तू तो संसार की जड़ी थी।
क्यों विलीन हो गयी ?
सदा के लिए खो गयी ?
हो सके तो फिर आना,
दुनिया को फिर से सजाना,
तुझ बिन गिरे हुओं को ख़ुद उठाना,
पुनः नया संसार बनाना।

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