Friday, October 02, 2009

हम कहाँ हैं?

- प्रधानजी/प्रधानाजी गुस्से में गाली दें तो ठीक है क्यों कि उनको प्रधानत्त्व के साथ-साथ विशेषाधिकार भी प्राप्त हो जाता है कुछ भी कहने का। मामला ओहदे का है, कोई डेड लाइन नहीं सब कुछ सही ही होगा हर हाल में।
- विशेषाधिकार-प्राप्त के लिए कोई नैतिकता नहीं है, कौन निर्धारित करेगा नैतिकता? किसकी नैतिकता? किसी के लिए अनैतिक ही तो किसी का नैतिक होता है। कम समझदार लोग जानते ही नहीं। जबरिया टोककर टाँग अड़ाते हैं। वाह! री दुनिया और दुनिया के ठेकेदार।
- जवान निकलने लगी है। उपेक्षा करो। क्या उल्टा-पुल्टा आनाप-शनाप भैं-भैं करते हैं लोग? नहीं समझ है, तो उधार माँग लें प्रधानजी/प्रधानाजी से। थोड़ी चापलूसी करनी पड़ेगी माई-बाप से।
- मूर्ख! यह प्रजातंत्र है। नेता की ही तो चलेगी। फिर वोई बात। तुझ में अक़्ल होती तो तू न इस तरह बात घुमा लेता? बेवकूफ़ बड़ों की बात में टाँग अड़ाता है?
- तो चुपचाप सुनता/सुनती-देखता/देखती रहूँ? फिर कैसा प्रजातंत्र?
- बोल ले, बोलता रह क्या कर लेगा। प्रधानजी के सब साथ हैं, उनका दबदबा है! तेरा क्या है? बोल के अपने आप चुप हो जाएगा। कुछ असर नहीं होगा और तेरे पर ही गुस्सा निकलेगा।
- ये तो कोई बात न हुई? ग़लत को ग़लत तो कहना ही पड़ेगा कि नहीं?
- अरे पागल ग़लत-सही तो आम आदमी, ग़रीब आदमी के शब्द हैं। दादा लोगन के थोड़े ही। वो तो जो बोले सब सही कहो। क्यों आफ़त मोल ले रहे हो। कोई काम निकालना सीखो। खाली-पीली सही-ग़लत न करो।
- क्यों?- ज़्यादा करेगा तो समझ ले हाँ! कर पाएगा कुछ?
- क्यों नहीं? हम घबराने वाले थोड़े ही हैं।

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