Monday, July 31, 2006

लोकनायक तुलसी

(यह लेख २१ अगस्त, १९७७ को नवभारत टाइम्स में प्रकाशित हो चुका है।)
‘जिन्होंने चिरपिपासाकुल संसार के संतप्त पथिकों के लिए सुशीतल सुधा-स्रोत-स्विनी पुन्य सरिता - रामभक्ति मन्दाकिनी की धवलधारा बहा दी है, जिन्होंने भक्त-भ्रमरों के अर्थ कृत-वाटिका में भाव-कुञ्ज कलिकाओं से अनुराग मकरंद प्रस्तरित किया, जिन्होंने साहित्य-सेवियों के सम्मुख भगवती भारती की प्रियतम प्रतिभा प्रत्यक्ष करा दी है, उनका भला प्राक्षःस्मरणीय नाम किस अभागे आस्तिक के हृदय-पटल पर अंकित नहीं होगा, जिसका रामचरितमानस भारतीय समाज के मन-मंदिर का इष्टदेव हो रहा है, जिनकी अभूतपूर्व रचना समस्त संसार में समादरणीय स्थान पाती जा रही है, उन रसित कविश्वर लोकललाम गोस्वामी तुलसीदास के नाम से परिचित न होना महान आश्चर्य का विषय है।' प्रस्तुत पंक्तियाँ हिंदी के महान साहित्यकार एवं आलोचक आचार्य रामचँद्र शुक्ल ने कही हैं। इन पंक्तियों के गर्भ में महाकवि तुलसीदास की महानता का समस्त अर्थ छिपा है। वास्तव में कविवर तुलसी की लेखनी ने वह कार्य कर दिखाया जो आज तक किसी कवि ने नहीं किया। वह जो कुछ रच गये वह भले ही भक्ति रस में सराबोर हो और अन्य कवियों ने अपनी कविता को विविध रसों में भिगोया हो परन्तु उसमें तुलसी की कविताकामिनी की सुषमा से श्रेष्ठ बनने की सामर्थ्य नहीं। उनकी इसी सर्वोच्चता को स्पष्ट करने के लिए डॉ. बड़थ्वाल का निम्न कथन पूर्ण समर्थ है-“मानव प्रकृति के क्षेत्र में जो उपासना है, अभिव्यंजन के क्षेत्र में वही साहित्यिक हो जाता है। गोस्वामीजी ने सूर, जायसी और कबीर की पँक्तियों को समेट कर अपनी कला के लिए न केवल भारतीय इतिहास का सर्वोत्तम कथानक ही चुना वरन उसकी लपेट के साथ ही काव्य के कमनीय कोमल कलिन कलेवर की माधुरी से सभी को मुग्ध कर दिया, परंतु साथ ही अपने वर्ण्य-विषय आध्यात्मिक-तत्त्व की प्रधानता को कभी शिथिलता नहीं दी” उन्होंने ऐसे समय में अपने उदगारों को कविता के रूप में प्रकट किया जबकि अधिकतर लोगों में निराशा की एवं अकर्मण्यता की भावना जोर पकड़ रही थी। उन्होंने अपनी सुषमामयी कविता-कामिनी के माध्यम से ऐसा मंत्र पढ़ा कि जनता सुप्त सर्प की भाँति जागकर फुंकार उठी। तुलसी का ही प्रभाव है जो हम कर्त्तव्यविमुख व्यक्तियों का अलख जगाने का ढोंग कम ही देखते हैं। उन्होंने जो कुछ लिखा वह सभी कुछ लोक -कल्याण की भावना से युक्त है। उनकी समस्त रचनाओं में लोकरंजन और लोकमंगल की भावना स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है। उनकी लोकमंगल की भावना को ध्यान में रखकर हम किसी अन्य कवि से उनकी तुलना नहीं कर सकते हैं क्योंकि वह अपने में अनूठी है। उनका रामचरितमानस महाकाव्य जो विश्व के श्रेष्ठतम महाकाव्यों में अपना स्थान रखता है, लोककल्याण का दूसरा नाम है। उसमें तुलसी की समस्त भावनाओं का सार-संग्रह है। उन्होंने महाकाव्य में भक्तिरस के साथ ही अन्य रसों की नदियाँ भी बहायीं है, हर तरह के पात्रों का समावेश किया है, किन्तु कहीं पर भी उसके आदर्श को ठेस नहीं पहुँची है। किसी भी प्रकार के वर्णन में सत्यं-शिवं-सुन्दरं की सात्विक सुषमा ओझल नहीं होने पायी है जिसकी आभा श्री मर्यादा पुरुषोत्तम राम के गुणों एवं सौन्दर्य में प्रतिष्ठित हुई है।
मानस में तुलसी ने जिस मर्यादा को कविता-प्रेमियों के सम्मुख प्रस्तुत किया है, वह हिंदु परम्परा के दिव्य-आदर्श का उदाहरण है। हर स्थान पर श्रेष्ठता की प्रमुखता है एवं नैतिकता को सर्वत्र प्राथमिकता दी गयी है। अलौकिक-पात्रों में मानवीय रुप देखकर पाठक गदगद हो जाता है। समस्त पात्र जब अपने-अपने गुणों से युक्त होकर चराचर संसार के उभय रूपों को दर्शक के सम्मुख प्रस्तुत करते हैं तो वह नैसर्गिकता से परिपूर्ण हो जाता है, विलक्षण नहीं।
तुलसी लोकनायक कहलाए, विश्व के श्रेष्ठ कवियों में उनका नाम लिखा गया, परंतु यह जानकर आश्चर्य होगा कि उन्होंने अपने नाम से किसी मत का संचालन नहीं किया अर्थात कोई संप्रदाय नहीं चलाया, ना हीं वह इसका विरोध करके ही लोकनायक कहलाए। यदि वास्तव में देखा जाए तो वह संप्रदाय से भी बहुत ऊँचे थे। उन्होंने जो भी भाव व्यक्त किया वह सब श्रुति-सम्मत है, उन्होंने उत्तराकाण्ड में स्पष्ट किया है-
श्रुति सम्मत हरि भक्तिपथ, संजुत विरति विवेक।’
उनकी रचनाओं में नवीनता का श्रेय उनकी उचित एवं आदर्श भावनाओं को जाता है। उन्होंने हर स्थान पर आदर्श को प्राथमिकता दी है। आदर्श को ध्यान में रखते हुए उपयुक्त विषयों को स्वीकार किया और अनुपयुक्त विषयों को त्याग दिया। यही महान आश्चर्य का विषय है कि उन्होंने किसी संप्रदाय का संचालन किए बिना स्वतंत्र भावनाओं को समस्त भारतीय सँस्कृति के रोम-रोम में इस प्रकार पहुँचा दिया कि सर्वसाधारण को इसका आभास नहीं होता।
तुलसी के उदगार तो लोक-कल्याण की भावना से ओतप्रोत थे ही परंतु उनकी लोकप्रियता का श्रेय उनकी काव्य-शैली को जाता है। उनके भाव स्वतः अर्थात मूल रुप से उत्तम हैं हीं साथ ही उनको इतने कमनीय ढंग से कहा गया है कि वह तुलसीदास को लोकप्रियता के सर्वोच्च शिखर पर लाकर खड़ा कर देते हैं, उनमें हृदयवाद और बुद्धिवाद का मंजुल समन्वय है जो उनकी लोकप्रियता में और वृद्धि करता है। कवि की रचनाओं में उसके विवेकपूर्ण भावों के सुंदर दर्शन होते हैं। उन्होंने सामाजिक बह्याडम्बरों में फँसकर अपनी अपनी रचनाओं का सृजन नहीं किया बल्कि विवेक से काम लियाऔर समाज की वास्तविक स्थिति को पहचाना। भक्ति को भक्ति के लिए मानकर चले, यही उनकी भक्ति की विशेषता है जिसका पुट हमें उनकी रचनाओं में देखने को मिलता है। उन्होंने अपनी भक्ति के पीछे बाहरी साधनों की अनिवार्यता पर कभी बल नहीं दिया। नामगाथा का ही गुणगान किया-
नाम प्रसाद शंभु अविनासी, साज अमंगल मंगल राशि।
सुक सनकादि सिद्ध मुनि योगी, नाम प्रसाद ब्रह्म-सुख भोगी।
तुलसीदास ने हृदयवाद की दो विशेषताओं (अभीष्ट विषय की ओर लग्न और लग्न की विघ्नपूर्ण दशा में भी गतिशील रहना) को अनुराग वर्णन में और तीसरी विशेषता (विरोधी विषयों के त्याग के लिए पर्याप्त मनोबल) को वैराग्य वर्णन में स्पष्ट किया है। इतना ही नहीं बल्कि लोक-कल्याण की भावना का संवेदना के रुप में प्रकटीकरण जो हृदयवाद की सर्वश्रेष्ठ विशेषता है, को तुलसी की रचना में सर्वत्र देखा जा सकता है। इसके अर्थात लोककल्याण की भावना के विषय में उन्होंने कहा है-
कीरति भनति भूत बेलि सोई, सुरसरि राम सब हित होई।’
सचमुच कवि की काव्य-कला अदभुत थी, उन्होंने समाज-कल्याण को ध्यान में रखते हुए भक्ति पूर्ण कविता की। वे सच्चे अर्थों में लोकनायक थे।

1 comment:

Manish Kumar said...

बहुत अच्छा लिखा है आपने तुलसीदास जी की महानता पर !

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