Sunday, June 11, 2006

'नमन कैसे करूँ'

(अनुगूँज २०)Akshargram Anugunj


नमन कैसे करूँ?
सुमन कैसे धरूँ?
दूँ श्रद्धांजलि कैसे तुझे?
शर्म आती है मुझे।
जो देकर गये थे तुम हमें,
खुद को खोकर छोड़ गये थे हमें,
था जो बलिदान दिया तुमने,
भारत माँ को दिलाया मान तुमने,
हमने उसे समझा अपनी विरासत,
बस उसे सोचा आराम की सहायक।
कर दिया भ्रष्टता का चलन,
भर दी एक दूसरे में जलन।
हिम्मत नहीं है तुम्हारी प्रतिमा से आँख मिलाने की,
तुम पर श्रद्धा से सिर झुकाने की।
मन में तूफ़ान उठते हैं,
दोनों हाथ जुड़ने से रुकते हैं।
आत्मा ग्लानि से भर रही है,
बार-बार यह प्रश्न कर रही है-
क्या हक़ है हमें?
यूँ खिलवाड़ करने का,
केवल स्वार्थ के भाव रखने का।
आज फिर क़सम लेते हैं
देश की एकता को अपनी जान समझते हैं।
अब ना भूलेंगे तुम्हारे आदर्श,
तुम्हारे दिये गये परामर्श।
प्यार की सूखी नदी को बहाएँगे,
जीवन में ईर्ष्या मिटा समानता लाएँगे।
भेद-भाव को पतझड़ करेंगे,
देश को नयापन देंगे।

3 comments:

Manish Kumar said...

राजनीतिक अवसरवादिता और घटते जीवन मूल्यों की ओर इशारा करती आपकी ये कविता अच्छी लगी। कविता के अंत में आपने आशा का जो बीज बोया है वो कब फलीभूत होगा ये तो वक्त ही बताएगा ।

Anonymous said...

बहुत सुंदर

प्रेमलता पांडे said...

मनीष जी रचना की सराहना के लिए धन्यवाद।
शोएब जी बहुत शुक्रिया ब्ला॓ग पर आने और रचना की सराहना करने के लिए।
शुभेच्छु
प्रेमलता

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