नियम-संयम
चाहे कितनी दूर ले जाओ दृष्टि,
झाँककर देख लो पूरी सृष्टि।
कोई भी अलग नजर नहीं आएगा,
हरेक नियमों में बंधा पाएगा।
ब्रह्मांड घूम रहा है नियम से,
ना तेज भाग रहा है बिन संयम के।
सूर्य चमकता है ताप से,
चंद्रमा शांति देता है अपनेआप से।
धरती घूम-घूम कर घूमती है,
मानों किसी को ढूढती है।
वृक्ष खड़े हैं जड़ों के साथ,
नदियाँ बहती हैं लहरों के हाथ।
फूल खिलने का है अपना मौसम,
तारे चमकते हैं करके आसमां रौशन।
फिर तुम क्यों नियम तोड़ते हो,
सारी सृष्टि को इतना छेड़ते हो।
सब कुछ कर दिया है बेलगाम,
जैसे प्रकृति हो तुम्हारी ग़ुलाम।
पर तुम्हारा यह अहं ठीक नहीं,
नयों के लिए कोई सीख नहीं।
मत रखो नियमों को ताक पर,
मत काटो बैठे हो जिस शाख पर।
वरना स्वयं तो अंगभंग हो जाओगे,
साथ में औरों को भी विकलांग कर जाओगे।
यह ब्रह्मांड की रचना नियमों का ही फल है,
नियमों से छेड़छाड़ ही प्रलय का हल है।
जीओ और जीने दो संपूर्ण प्रकृति को,
अनुशान के साथ स्वर्ग बनने दो जगती को॥
Friday, September 15, 2006
नियम-संयम
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6 comments:
भाया, आपकी ये कविता मैंने अपनी छोटी सी साप्ताहिक मुफ़्त बँटने वाली पत्रिका बसेरा के ग्याहरवें अँक में डाली है। उम्मीद है कि आपको कोई आपत्ती नहीं होगी। साथ में एक और प्रयोग भी करने जा रहा हूँ। अब से लेकर हर सप्ताह चुनी गईं ब्लाग प्रविष्टियों के लिए मैं छोटे से उपहार के रूप में एक एक यूरो (लगभग 55 - 58 रुपए) देना चाहता हूँ। अगर आप ये उपहार कबूल करते हैं तो कृपया मुझे भारत में अपने किसी बैंक खाते का विवरण rajneesh_mangla@yahoo.com पर भेजें। धन्यवाद
धन्यवाद रजनीश।
वाह भाई रजनीश . कभी मेरे ब्लॉग भी छाप देना . मुझे भी यूरो कोई खराब नहीं लगते हैं:)
सही है - अच्छी कवीताएं सबके साथ शेर करनी चाहिए
रजनीशजी वैसे तो मैंने आपको मेल भेज दी है,
यहाँ भी यही गुजारिश है कि यूरो को 'बसेरा' के संवर्धन में लगाएँ। हमारी शुभकामनाएँ आपके साथ हैं। यूँ ही हिंदी की सेवा करते रहें।
-प्रेमलता
फूल खिलने का है अपना मौसम,
तारे चमकते हैं करके आसमां रौशन।
फिर तुम क्यों नियम तोड़ते हो,
सारी सृष्टि को इतना छेड़ते हो।
सब कुछ कर दिया है बेलगाम,
जैसे प्रकृति हो तुम्हारी ग़ुलाम।
बहुत खूब प्रेमलता जी ! बेहद पसंद आया पर्यावरण को संरक्षित करने का आपका कविता के माध्यम से ये संदेश !
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