Thursday, May 18, 2006

प्रतिकूल जीवन

(नागफनी का तर्क)
मैं कांटों की झाड़ हूं,
बिन पानी की बाढ़ हूं,
सब मुझे हैं घूरते
बुरी लगती हैं मेरी सूरतें।
सोचते हैं व्यर्थ है,
धरती पर इसका ना कोई अर्थ है।
क्या ज़रुरत थी इसे उगने की?
बिन पानी इतना बढ़ने की।
पर वो भूल जाते हैं,
ना ही उन्हें जीवन के अर्थ आते हैं,
अनुकूल स्थिति में तो सब रह जाते हैं,
जीवन में सौंदर्य समझाते हैं,
परिस्थिति बदलने पर साथ छोड़ जाते हैं।
पर मुझे तो मरुस्थल से ही प्यार है,
उसमें उगने से ही कांटों की बाढ़ है,
मैं फूल भी खिलाती हूं
और सूखे में ही हर्ष से जीवित भी रह जाती हूं।

2 comments:

Basera said...

बहुत अच्छी कविता है

Udan Tashtari said...

बढिया है,अच्छी लगी।

समीर लाल

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