Thursday, April 27, 2006

प्रकाश के द्वार

भ्रम की रात काली है,
एक अंधेरी जाली है।
जब भी घूम कर देखा
दिखायी दी हर ओर काली रेखा
पर कालिमा के बीच लाली है,
वो आशा की प्याली है।
मन की आंखें खोलकर देखो,
काली जाली उखाड़कर फेंको,
परत दर परत उखड़ेगी,
तब कहीं जाकर रौशनी चमकेगी।
सारी दुनिया साफ़ नज़र आएगी,
अपनी असलियत दिखाएगी।
अगर अंधेरे में ही जीते रहे,
बिना देखे ही दुनिया समझते रहे,
तो अनर्थ बड़ा हो जाएगा,
भ्रम का जाल फैल जाएगा,
निराशा में दम घुट जाएगा।
गर अंधेरे के पार देखोगे,
प्रकाश के द्वार देखोगे,
उस द्वार को खटखटाओगे,
हीनता की संकल गिराओगे,
दरवाज़ा अपने आप खुल जाएगा,
अज्ञानता का परदा हट जाएगा,
सामने होगी दिव्य-ज्योति
जो है जीवन-धन मोती।
बस उसे ही ढ़ूढ़ना है,
अंधेरे के पार प्रकाश को खूंदना है।

2 comments:

Udan Tashtari said...

वाह प्रेमलता जी
इस कविता को आप ब्लाग पर ले आईं, फ़िर से पढकर बहुत अच्छा लगा.

समीर लाल

Anonymous said...

Namaste Premlata Ji

Bahut acchi lagi aap kee ye kavitaa.

mein to buss aap ke blog kaa aanand le raha hun aaj.

aadar sahit
Ripudaman Pachauri

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