चलो आदमी को आदमी से मिलवाया जाए,
हो सके तो उसका चेहरा ही उसे दिखाया जाए।
पहचानना भूल गया है ख़ुद को आदमी,
बंद कर दी है उसने अपनी सूरत भी पहचाननी।
जब देखा था उसने ख़ुद को आईने में पहले कभी एक बार,
तो था वह एक मासूम सा भोला-भाला इंसान।
बस सोचता था अच्छाई और भलाई की बातें,
नहीं आती थीं कभी उसके जीवन में बुराई की रातें।
ईमान, धर्म, अहिंसा और प्रेम थे उसके गहने,
कपड़े भी रहता था सदा वह बेदाग़ ही पहने।
करता था प्यार हर आदमी हर आदमी से,
रहता था इंसान बनकर बड़ी सादगी से।
करता नहीं याद आदमी उस आदमी को कभी,
याद की पहचान हीं मिटा दीं हैं उसने सभी।
अपने को अपने आप से घुमा रहा है आदमी,
करता है कुछ और दिखा रहा है कुछ और आदमी।
मन के दर्पण में झांकने पर उसे जो दिखता है,
उसे देखकर अपने आप से वो बहुत डरता है।
सूरत आतंक के रंग में रंगी सी है,
ख़ून के छीटों ने उसे भद्दी सी कर रक्खी है।
डरावनी आंखें परछांई भी नहीं देख पा रहीं हैं,
असली चेहरा क्या देखेंगीं, चित्र भी पहचान नहीं पा रहीं हैं।
भूल गया है दुनियादारी पूरी तरह आदमी,
स्वार्थ की रखी है नीति बना उसने अपने आप ही॥
3 comments:
"चलो आदमी को आदमी से मिलवाया जाए,
हो सके तो उसका चेहरा ही उसे दिखाया जाए।"
आदमी के दिल से आदमी का खौफ़ निकाला जाये.
बहुत बढियां.बधाई.
समीर लाल
रचना की सराहना के लिए धंयवाद समीर भाई।
प्रेमलता
चलो आदमी को आदमी से मिलवाया जाए,
आज उसका चेहरा ही उसे दिखाया जाए।
उत्तम प्रयास है. लिखते रहें. उत्कृष्टता अपने आप आएगी व रचनाएँ अपने आप निखरेंगी...
बधाई!
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