वर्षा के जाते ही और शीत के आने से पहले शरद-ऋतु अपना प्रभाव दिखाती है। जहाँ वर्षा में हरियाली एक छत्र राज फैलाती है वहीं शीत में अनेक गहरे रंग खिल उठते हैं। बीच में शरद-ऋतु अपने श्वेत-धवल रंग से निसर्ग को चमकाती है। क्या चँद्रमा की चाँदनी! और क्या चाँदनी के पुष्प! सभी प्रकृति को सौम्यता प्रदान करते हैं।
वर्षा के जल से स्वच्छ हुआ पर्यावरण चाँदनी की निर्मलता को धरा पर ऐसे फैला देता है मानों दूधिया पारदर्शी चादर फैला दी हो।
ग्रीष्म में वायु कंजूस और कटूभाषी व्यक्ति जैसा रुप धारण कर लेती है तो शीत में वह ग़रीब के घर ज़बरन ठहरे मेहमान की तरह कष्टकारी प्रतीत होती है और शरद में वह शिशु के कोमल स्पर्श सी अनुभूति कराती है।
नदियाँ ग्रीष्म में महिला मजदूर की भाँति थकी सी लगती हैं तो वर्षा में प्रलय का स्वरुप लगतीं हैं पर शरद में फिरोज़ी परिधान पहने स्नेह छलकाती माँ के समान प्रतीत होती हैं।
शरद-ऋतु कोमलता और सुन्दरता अर्थात माधुर्य-गुण की परिचायक है। प्रकृति की शांत और मोहक छवियाँ अन्तःस्थल की सूक्ष्मपरत तक प्रभावित करती हैं। कहते हैं शरद-चाँदनी में ही राधा-कृष्ण और ब्रज गोपियों ने महारास (जिसे भक्ति,प्रेम और सौन्दर्य की सर्वव्यापकता की अभिव्यक्ति माना गया है) किया था।
सच में शरद उल्लास का समय है। त्योहारों और उत्सवों की रौनक़ मन -हंस को भू-सरोवर में प्रकृति के सुंदर दृश्य रुपी मोती चुगवाती है।