समय के साथ चलो
नयी नयी बात करो
नयी सुबह है मिली,
चारों ओर मीठी धूप खिली।
अलसायी रात गयी,
सुनहरी प्रातः भयी,
अरे मन जल्दी करो,
नयी गागर भरो,
पर ना भूलो कल को।
होगा हर दिन नया दिन,
पर ना पूरा है कल के बिन,
आने वाले कल का भी होगा भला,
जो चलेंगे समय को साथ मिला,
रोज़ रात के बाद दिन आएगा,
जो अंधेरे की अहमियत बताएगा।
रोशनी और अंधेरा साथ साथ हैं,
जैसे इक ज़मी पर दो रात हैं।
Monday, May 22, 2006
Sunday, May 21, 2006
अनुगूँज १९ "संस्कृतियाँ दो और आदमी एक"
'सब बदल गए हैं '
मापक तो वही हैं,
व्यापक भी वही हैं,
फिर क्यों संस्थापक बदल गये हैं?
उनके रीति-रिवाज़ बदल गये हैं?
बदलना था तो
बदलते कुरीतियों को
नये रिवाज़ बनाते
जोड़कर नीतियों को।
पर यह क्या कर दिया?
सारा का सारा चलन ही बदल दिया!
ना पैर ज़मीं पर है
ना सर आसमां की तरफ ,
किसी किसी बात का तो ना छोड़ा कोई हरफ।
सब यौगिक हो गये हैं,
सारे हालात बदल गये हैं
पश्चिम से रासायनिक क्रिया कर गये हैं।
किस तरह तत्व ज्ञान समझाऊं?
मूल तत्व तो रहा ही नहीं,
सब नया पदार्थ बन गये हैं।
Thursday, May 18, 2006
प्रतिकूल जीवन
(नागफनी का तर्क)
मैं कांटों की झाड़ हूं,
बिन पानी की बाढ़ हूं,
सब मुझे हैं घूरते
बुरी लगती हैं मेरी सूरतें।
सोचते हैं व्यर्थ है,
धरती पर इसका ना कोई अर्थ है।
क्या ज़रुरत थी इसे उगने की?
बिन पानी इतना बढ़ने की।
पर वो भूल जाते हैं,
ना ही उन्हें जीवन के अर्थ आते हैं,
अनुकूल स्थिति में तो सब रह जाते हैं,
जीवन में सौंदर्य समझाते हैं,
परिस्थिति बदलने पर साथ छोड़ जाते हैं।
पर मुझे तो मरुस्थल से ही प्यार है,
उसमें उगने से ही कांटों की बाढ़ है,
मैं फूल भी खिलाती हूं
और सूखे में ही हर्ष से जीवित भी रह जाती हूं।
मैं कांटों की झाड़ हूं,
बिन पानी की बाढ़ हूं,
सब मुझे हैं घूरते
बुरी लगती हैं मेरी सूरतें।
सोचते हैं व्यर्थ है,
धरती पर इसका ना कोई अर्थ है।
क्या ज़रुरत थी इसे उगने की?
बिन पानी इतना बढ़ने की।
पर वो भूल जाते हैं,
ना ही उन्हें जीवन के अर्थ आते हैं,
अनुकूल स्थिति में तो सब रह जाते हैं,
जीवन में सौंदर्य समझाते हैं,
परिस्थिति बदलने पर साथ छोड़ जाते हैं।
पर मुझे तो मरुस्थल से ही प्यार है,
उसमें उगने से ही कांटों की बाढ़ है,
मैं फूल भी खिलाती हूं
और सूखे में ही हर्ष से जीवित भी रह जाती हूं।
Saturday, May 13, 2006
जननी
तुम! मां हो
मेरा पूरा जहां हो।
संसार में आए हैं तुमसे,
तुमने ही परिचय कराए हैं सबसे।
तुम्हारी पूजा करना अभिमान है,
तुम्हारी सेवा करना शान है।
बस चाहती हूं एक बात
ना बीते बिन तुम्हारे एक भी रात।
बिन तुम्हारे होंगे सारे सुख फींके,
साथ तुम्हारे हैं सारे दिन नीके।
तुम तो मेरा आधार हो,
उठाती सारा भार हो,
ना माथे पर आयी रेखा,
ना कभी कोई अवसाद देखा,
कैसे बयां करूं अपनी भावना,
हो नहीं सकती बिन तुम्हारे कोई आराधना।
जब भी होती हूँ उदास,
होता है तुम्हारे प्यार का अहसास।
नहीं होती कम कभी हिम्मत,
तुम देती हो मुझे सदा आत्मबल।
क्या क्या ना सहा तुमने हमारे लिए,
सारे कष्ट उठाए हैं ताकि हम जीएं।
तुम तो दिये का तेल हो
जो जलने से कभी रूकता नहीं,
तुम तो एक ऎसी बेल हो
जो गिरकर कभी मरती नहीं।
हमसे कभी रूठी नहीं
मुंह कभी मोड़ी नहीं,
करती हो सबकुछ अर्पण,
जीवन तुम्हारा है एक दर्पण।
मेरा पूरा जहां हो।
संसार में आए हैं तुमसे,
तुमने ही परिचय कराए हैं सबसे।
तुम्हारी पूजा करना अभिमान है,
तुम्हारी सेवा करना शान है।
बस चाहती हूं एक बात
ना बीते बिन तुम्हारे एक भी रात।
बिन तुम्हारे होंगे सारे सुख फींके,
साथ तुम्हारे हैं सारे दिन नीके।
तुम तो मेरा आधार हो,
उठाती सारा भार हो,
ना माथे पर आयी रेखा,
ना कभी कोई अवसाद देखा,
कैसे बयां करूं अपनी भावना,
हो नहीं सकती बिन तुम्हारे कोई आराधना।
जब भी होती हूँ उदास,
होता है तुम्हारे प्यार का अहसास।
नहीं होती कम कभी हिम्मत,
तुम देती हो मुझे सदा आत्मबल।
क्या क्या ना सहा तुमने हमारे लिए,
सारे कष्ट उठाए हैं ताकि हम जीएं।
तुम तो दिये का तेल हो
जो जलने से कभी रूकता नहीं,
तुम तो एक ऎसी बेल हो
जो गिरकर कभी मरती नहीं।
हमसे कभी रूठी नहीं
मुंह कभी मोड़ी नहीं,
करती हो सबकुछ अर्पण,
जीवन तुम्हारा है एक दर्पण।
Wednesday, May 10, 2006
तू बटोही क्यों रुका है
आकाश तारों से खिला है,
चंद्रमा उसमें चला है,
तू बटोही क्यों रुका है ?
अपनी राह क्यों नहीं चला है ?
रुककर खड़ा ना रह पाएगा,
तूफ़ानों में घिर जाएगा।
आँधियां उड़ा देती हैं,
रुकने वाले को ज़बरन चला देती हैं।
राह भी भूल जाएगा,
इधर-उधर भटका रह जाएगा।
चारों ओर देख ले,
मन में अपने सोच ले,
क्या कभी कोई रुका है ?
बिना चले ही टिका है ?
मंज़िल पर पहुंचना तो है,
अभीष्ट को पाना भी है,
फिर क्यों सोचता है ?
अपनी राह छोड़ता है,
चल आगे आगे चल,
अपने आप मिट जाएगा छल,
चलते-चलते ना जाने कब
निकल आएगा दिन।
चंद्रमा उसमें चला है,
तू बटोही क्यों रुका है ?
अपनी राह क्यों नहीं चला है ?
रुककर खड़ा ना रह पाएगा,
तूफ़ानों में घिर जाएगा।
आँधियां उड़ा देती हैं,
रुकने वाले को ज़बरन चला देती हैं।
राह भी भूल जाएगा,
इधर-उधर भटका रह जाएगा।
चारों ओर देख ले,
मन में अपने सोच ले,
क्या कभी कोई रुका है ?
बिना चले ही टिका है ?
मंज़िल पर पहुंचना तो है,
अभीष्ट को पाना भी है,
फिर क्यों सोचता है ?
अपनी राह छोड़ता है,
चल आगे आगे चल,
अपने आप मिट जाएगा छल,
चलते-चलते ना जाने कब
निकल आएगा दिन।
Saturday, May 06, 2006
तुम तूफ़ान बनो
बड़ी तेज़ गर्मी थी
दुनिया हाहाकार करती थी।
पत्ता नहीं कोई हिलता था
हर कोई तपता था।
तभी अचानक तूफ़ान आया
साथ में बादल भी लाया।
पहले अवर्णित हवाएं चलीं
पूरी धूल उड़ा चलीं।
जो कुछ था हल्का-फुल्का
पता नहीं था उसको कहीं का।
भारी-भरकम भी ठहरे नहीं थे
ज़मीं पर टिके नहीं थे।
तभी बादल को भी जोश आया
पूरा दम बरसने में लगाया।
जो धरा तप रही थी
वो अब महक़ रही थी।
ताप शीतल हो गया
तूफ़ान शांत हो गया।
पृथ्वी मुस्कराती थी
हरी-भरी लहलहाती थी।
तुम तूफ़ान बन सकते हो
बादल की तरह बरस सकते हो।
बहुत आपाधाप है
चारों तरफ़ संताप है
तुम उसे शांत करो।
तूफ़ान बन उड़ा दो बुराई
प्रेम की बरसात से शांत हो लड़ाई।
हर तरफ़ शीतल बयार बहे
ना कहीं ईर्ष्या जलन का भाव रहे।
चारों तरफ़ सत्य-अहिंसा की हो खुशबु
सुंदर सजे मानवता की आबरू।
दुनिया हाहाकार करती थी।
पत्ता नहीं कोई हिलता था
हर कोई तपता था।
तभी अचानक तूफ़ान आया
साथ में बादल भी लाया।
पहले अवर्णित हवाएं चलीं
पूरी धूल उड़ा चलीं।
जो कुछ था हल्का-फुल्का
पता नहीं था उसको कहीं का।
भारी-भरकम भी ठहरे नहीं थे
ज़मीं पर टिके नहीं थे।
तभी बादल को भी जोश आया
पूरा दम बरसने में लगाया।
जो धरा तप रही थी
वो अब महक़ रही थी।
ताप शीतल हो गया
तूफ़ान शांत हो गया।
पृथ्वी मुस्कराती थी
हरी-भरी लहलहाती थी।
तुम तूफ़ान बन सकते हो
बादल की तरह बरस सकते हो।
बहुत आपाधाप है
चारों तरफ़ संताप है
तुम उसे शांत करो।
तूफ़ान बन उड़ा दो बुराई
प्रेम की बरसात से शांत हो लड़ाई।
हर तरफ़ शीतल बयार बहे
ना कहीं ईर्ष्या जलन का भाव रहे।
चारों तरफ़ सत्य-अहिंसा की हो खुशबु
सुंदर सजे मानवता की आबरू।
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